हूँ मैं या नहीं
हर बार जब हारा मैं तो बोला खुद को नहीं हूँ मैं हर बार जब जीता मैं तो बोला खुद को नहीं हूँ मैं हर दिन ढला, हर रात गुजरी न मैं जीता, न हालत सुधरी दिन रोया रात रोया कुछ पाया कुछ खोया ये सब चला काफी दिन फिर बोला खुद को नहीं हूँ मैं आलस जकड़ा , मन पकड़ा हर अंग शरीर का अकड़ा फिर बोला खुद को नहीं हूँ मैं लोग, यार-दोस्त और रिश्ते शायद छूटें कुछ बच जाएँ या सब टूटें बोलूँगा खुद को नहीं हूँ मैं अब अंत में कर्म को पा रहा हूँ और सिर्फ इसी वजह से जिए जा रहा हूँ समय और परिस्थिति जैसी भी हो अब खुद को समर्पित करने जा रहा हूँ अब नहीं बोलूँगा खुद को नहीं हूँ मैं अब तो सिर्फ, हूँ ही मैं ॥