वक्त
कभी मिलूं तुमसे तो ये शाम हो,
इस दिल को कभी यूंही आराम हो।
वक़्त गुजरता है, सांसें चलती हैं,
लोग गुजरते हैं, यादें ठहरती हैं।
लेकिन इस ज़ालिम दुनिया में,
दफन हैं बेवक्त की बुनियादें।
उसमें वक़्त से वक़्त चुराता हूं,
यूंही खुद को अकेला पाता हूं।
यूंही बिखर कर रोता हूं,
और खुद को समेट चुप हो जाता हूं।
पर कम्बख़्त दिल को भी काम बहुत है,
गुज़रता वक़्त भी बेआराम बहुत है।
किस्से गिले शिकवे रखूं मैं यहां,
मुझे खुद से फ़ुर्सत मिले तो नाम बहुत हैं।
खुद से मिला करें कभी कभी,
फूल बनकर खिला करें कभी कभी।
हंस कर मिलते हो सबसे, सबके खास हो क्या?
इस मतलबी दुनिया में बेमतलब की आस हो क्या?
मैं जानता हूं तस्वीरें जलाने से होता नहीं कुछ,
क्यों न भूलूं आसानी से, ज़माना साज़ हो क्या?
Comments
Post a Comment