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Showing posts from March, 2025

बदलाव

जो प्यार था पहले, अब जलती आग बन चुका है। जितना पिघलता था तुझ पर, देख, अब राख बन चुका है। काफ़ी ग़म सताता था तेरा , पहले अब वो सब ख़ाक बन चुका है। जो पहले मीठा एहसास था प्यार का, अब वो कड़वा स्वाद बन चुका है। लोगों ने ज़िंदा देखा नहीं मुझे, वो एक हंसती लाश बन चुका है। एक शीशे सा दिल था मेरे सीने में, अब देख, बिखरा काँच बन चुका है। तुझे भूलने की कोई कोशिश नहीं की मैंने, मेरा जिस्म, तेरी याद बन चुका है। दिनभर तुझ पर दुनिया लुटाता था मैं, अब वो दिन, रात बन चुका है। जिस समंदर में ख़ून था मेरा, अब उसका एक डूबा जहाज़ बन चुका है। अब मत लौट, यही इल्तिज़ा है तेरा हमदर्द फ़राज़ बन चुका है। तुझसे दूरी ही सही है, मेरा ग़ुस्सा मेरे साज़ बन चुका है। अच्छा नहीं हूँ मैं, सही बात, मेरा बुरा, मेरा साथ बन चुका है। जिस आस्तीन में संभालती थी तू, वो तेरा आस्तीन का साँप बन चुका है। मरकर भी नहीं लौट सकता मैं अब तो तेरा नया यार बन चुका है।                                                  ...

खोया हुआ मैं

पता नहीं किस ख़याल में खो गया हूँ, मैं, मैं नहीं रहा, यूँ ही हो गया हूँ। दिन ढलते-ढलते आँख नम हो गई मेरी, आँसू न निकल पाए, दिल से रो गया हूँ। तक़दीर के हाथों की बनावट हूँ, न याद आए ऐसी पुरानी कहावत हूँ। ख़ुद के ऊपर हूँ या लोगों के ऊपर, बोझ, कुछ नहीं, बस ख़ुद ही ख़ुद की इबादत हूँ। रास्ते तंग हैं, ज़िंदगी बेरंग है, हालात जंग हैं, कब तक लोग संग हैं? बस जिए जाना एक व्यंग्य है, ये भी ज़िंदगी का एक अंग है। अब कैसे करूँ कुछ बातें बयां मैं, अब कुछ नहीं बचा मेरे ही दरमियां मैं। लेकिन बची है एक आस, और भी बची है साँस, जितना कर पाऊँ, उतना करूँ इसी हवा में। एक अरसे पहले जिस दौर से गुज़रा था, आज उस दौर से फिर गुज़रना है। पिछली बार ज़िंदा बच गया काफ़ी, इस बार तो डूब कर मरना है। जैसे तैर कर लोग डूब जाते हैं, वैसे ही तैरने वाले लोग उब जाते हैं। ऊपरवाले जो चाहेंगे, होगा वही, थोड़ा अच्छा करें लोग, थोड़ा हम कर आते हैं। पर इस जंग में लड़ना नहीं मन से, एक वही है जो देता साथ ज़्यादा धन से। चलेंगे तो कुछ-कुछ हो ही जाएगा, और बस चलते ही जाना है हर मन से।                 ...

वो

मेरे सामने बैठी है वो, जैसे शांत गंगा बहती है जो। यूं ही अंदर ही अंदर सहती है वो, मालूम है मुझे क्यों दुखी रहती है वो। उसकी आंखों को पढ़ लेता हूं, जैसे बिन बोले बहुत कहती है वो। मेरी मजबूरी भी है इस कदर, मेरी चुप्पी के अंदर रहती है वो। मैं पूछ नहीं पाता कुछ उससे, मुझसे खुद ही खुद कहती है वो। और जब कुछ नहीं कहती वो, तो लू की तरह बहती है वो। मेरी भी मजबूरी बन आती है, दूरी, औकात याद दिलाती है। मैं काफी कुछ कर सकता हूं, फिर भी, कुछ न करने को कहती है वो। मुझसे इतना कुछ छुपाती है, समेटकर मैं भी खुद अंजान बनता हूं। वो हंसते हुए आंसू छुपाती है, देखकर मैं भी खाली मकान बनता हूं। यूं ही एक दिन दरिया की तरह बह जाएगी, बिन कहे सब कुछ कह जाएगी। मैं बैठूंगा उस दरिया के किनारे, जिसमें मेरी कश्ती यूं ही ढह जाएगी।                                                 - शिनाख्त