स्वीकृति

मिलती है कभी-कभी धूप,

मिलती है कभी-कभी छाँव,

ढूँढा अपना पूरा शहर,

देखा दुनिया का हर एक गाँव।


जब देखता हूँ दुनिया का दर्पण ग़ौर से,

सदियों से बंद आंखें खुलती ज़ोर से।

कर्म के बिना कभी मिलती न अच्छाई,

हमेशा मिलती बुराई, बिना काम किए ज़ोर से।


बैठ जाता हूँ बनकर एक तस्वीर परेशानी की,

कि बता दूँ या छुपा लूँ ,सच्चाई अपनी कहानी की।

चलते रहे तो मिल जाएंगे गहरे क़िस्से,

पर कभी वे लोग न आएंगे मेरे हिस्से।


इस राह में मिलते हैं कई साथी बिछड़ने को

हमने भी बोला क्या करें, चलने दो 


तो इस स्वीकृति में ही भलाई है,

चाहें मेरी आँख नम हो आई है।

जैसे जीवन में कर्म कभी छूटता नहीं,

वैसे ग्रहण में सूरज कभी डूबता नहीं।


तो कर्म और भी किए जाएंगे,

थोड़े आसूं और पीए जाएंगे 

थोड़े अच्छे लोग और आएंगे

थोड़े बुरे दिन और जाएंगे


पर ये क़दम नहीं रुक पाएंगे। 

                                          - शिनाख्त 

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