सच, सच... हाँ सच और कुछ जवाब — कि क्यों मैं लोगों से इतना मिलकर नहीं रहता, क्यों मैं लोगों को इतना सहता, क्यों मैं करता हूँ अकेलापन दूर करने की कोशिश, क्यों मैं लोगों के लिए इतना अच्छा रहता ? सच तो ये है कि — मैं किसी पर भी पूरा भरोसा नहीं करता। एक डर लगता है, कि सामने वाला छोड़ जाएगा कुछ समय बाद। मैं फिर अकेला हो जाऊँगा कुछ समय बाद। जब बचपन में अपनों ने साथ छोड़ दिया, तो किस पर पूरी तरह भरोसा करूँ — कुछ समय बाद। अभी व्यस्त हैं, वो हँस रहा है मुझसे, वो अपना रहा है मुझे, मुझे वो कर देगा पराया कुछ समय बाद। पर मैं भी शायद पूरी तरह अच्छा नहीं हूँ, लेकिन कम से कम, पूरी तरह सच्चा तो हूँ। कोई फिर मुझसे बात भी न करेगा, वो काम के बाद ऐसा रिश्ता फिर न चलेगा। अपना रास्ता निकालने पर, मुझे मेरे रास्ते पर अकेला छोड़ देगा, खुद टूट जाने से अच्छा, वो मुझे तोड़ देगा। मैं लोगों के हाथ का खिलौना बनकर रह जाऊँगा, एक मूर्ख की तरह वही गलती फिर दोहराऊँगा। लोगों से फिर दोस्ती करूँगा, और फिर मुँह की खाऊँगा। लोग चले जाते हैं मुझे तन्हा छोड़ कर, ख़ुद जुड़ने के लिए मुझे तोड़ कर। इसलिए एक हल्की दूरी रखता हूँ और एक श...